कृषि बिल: न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर डरे हुए क्यों हैं किसान?
रविवार को राज्यसभा में पारित हुए नए कृषि सुधार क़ानूनों को लेकर विपक्ष के बढ़ते विरोध के बीच केंद्र सरकार ने फ़सलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को बढ़ाने का फै़सला किया है.
कैबिनेट की आर्थिक मामलों की समिति ने सोमवार को इसके लिए मंज़ूरी दे दी है. कृषि मंत्री ने रबी की छह फ़सलों की नई एमएसपी जारी की है. ये फ़ैसला ऐसे वक़्त में लिया गया है जब कृषि संबंधी नए विधेयकों को लेकर किसान चिंतित हैं कि इससे मौजूदा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर असर पड़ने वाला है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस फ़ैसले को लेकर ट्वीट किया, "बढ़ा हुआ एमएसपी किसानों को सशक्त करेगा और उनकी आय दोगुनी करने में योगदान देगा. संसद में पारित कृषि सुधारों से संबंधी क़ानून के साथ-साथ बढ़ा हुआ एमएसपी किसानों की गरिमा और समृद्धि सुनिश्चित करेगा. जय किसान!"
मैं पहले भी कहा चुका हूं और एक बार फिर कहता हूं:
— Narendra Modi (@narendramodi) September 20, 2020
MSP की व्यवस्था जारी रहेगी।
सरकारी खरीद जारी रहेगी।
हम यहां अपने किसानों की सेवा के लिए हैं। हम अन्नदाताओं की सहायता के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे और उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहतर जीवन सुनिश्चित करेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रियों की ओर से इस बात के आश्वासन के बावजूद कि नए क़ानून से एमएसपी पर असर नहीं पड़ेगा, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों के किसान इन विधेयकों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
किसान क्यों कर रहे हैं विरोध
पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन बिज़नेस न्यूज़ वेबसाइट मनीकंट्रोल डॉटकॉम पर एक लेख में लिखते हैं, "कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक, 2020 का उद्देश्य अनुबंधों के तहत होने वाली कृषि को एक क़ानूनी सुरक्षा कवच देना है. इस विधेयक की मदद से किसान किसी फसल को पैदा करने के लिए पाँच साल तक का अनुबंध कर सकते हैं."
गन्ना किसानों ने पहले ही चीनी मिलों के साथ अनुबंध आधारित खेती शुरू कर दी है. चूंकि अनुबंध वाली खेती करने के लिए किसी तरह की बाध्यता नहीं है. ऐसे में इस मुद्दे पर ज़्यादा चर्चा नहीं हुई है. हालांकि, विपक्ष का दावा है कि इस विधेयक की वजह से किसानों की ज़मीन कॉरपोरेट कंपनियों का कब्जा हो जाएगा."
"ये संभव है कि किसान उत्पादक संगठन कुछ नगदी वाली फसलों के लिए आधुनिक फुटकर विक्रेता, थोक विक्रेता, एग्रीगेटर, प्रोसेसर और निर्यातकों के साथ अनुबंध करेंगे. हालांकि, इस बात की संभावनाएं काफ़ी कम हैं कि किसान बड़े व्यापारियों के साथ अनुबंध करेंगे क्योंकि वे कॉरपोरेट कंपनियों के राजनीतिक प्रभाव से बेहद भयभीत हैं और क़ानूनी रास्ता उनके लिए काफ़ी महंगा साबित होगा. पंजाब और हरियाणा में कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020 को किसानों, कमिशन एजेंट्स और मंडी मजदूरों की ओर से भारी विरोध झेलना पड़ रहा है."
"इस विधेयक की मदद से किसान एपीएमसी सिस्टम के बाहर भी जाकर अपनी फसल बेच सकते हैं. इसे ट्रेड एरिया बताया गया है जहां राज्य सरकारें मार्केट फीस और सेस या टैक्स नहीं लगा सकती हैं. ऐसे में एक डर है कि कृषि व्यापार एपीएमसी से निकलकर ट्रेड एरिया में चला जाएगा ताकि ये खर्च बचाया जा सके."
"पंजाब और हरियाणा ने एपीएमसी से मिले हुए पैसों से ग्रामीण स्तर और मंडियों के आधारभूत ढांचे का काफ़ी विकास किया है. पंजाब सरकार हर साल मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदे गए गेहूं और धान से 3500 करोड़ रुपये हासिल करती है. ये पैसा केंद्र सरकार की ओर से प्रोक्योरमेंट इंसीडेंटल्स के रूप में आता है. इन राज्यों के किसान इस बात से डरे हुए हैं कि ये विधेयक गेहूं और धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद को बंद करने के लिए लाया जा रहा है. हालांकि, केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि पहले की तरह फसलों की ख़रीद जारी रहेगी."
साल 2020 में ही गेहूं और धान की फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदे जाने के बदले में इन दोनों राज्यों को 80,528 करोड़ रुपये दिए गए हैं. इन दोनों राज्यों में अगले तीन चार हफ़्तों में गेंहूं और धान की फ़सल आने वाली है.
और अगर इन फ़सलों को बाज़ार की ताकतों के हवाले छोड़ दिया गया तो इस बात की आशंका जताई जा रही है कि कीमतों में 15-20 फीसदी की कमी आ सकती है. साल 2019 और 2020 में भारत में गेहूं और चावल की खेती का कुल ऑफ़टेक क्रमश: 27.2 मिलियन टन और 35 मिलियन टन था.
लेकिन खरीद 34.1 मिलियन टन और 50.5 मिलियन टन थी. इस वजह से सरकार के पास बेहद ऊंची कीमतों वाला बहुत ज़्यादा स्टॉक है. गन्ना किसान विरोध प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे ज़्यादातर अनुबंध के आधार पर खेती करते हैं. और गन्ने की मूल्य में गिरावट की कोई आशंका नहीं है. इसी वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में पंजाब और हरियाणा जैसे विरोध प्रदर्शन नहीं हो रहे हैं.
केंद्र सरकार को अगले दस सालों के लिए पीडीएस एवं प्रोक्योरमेंट का रोडमैप तैयार करना होगा. यहां पर एक ज़रूरत ये है कि सरकार खरीद कम करे, विशेषत: पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में खरीद कम करे जहां पानी की कमी है, ताकि अधिक माल लेकर उसके बाद होने वाली बर्बादी को रोका जा सके. ऐसे में केंद्र सरकार के सामने लक्ष्य ये है कि वह इस तरह की आम सहमति विकसित कर सके.
क्या कहते हैं विशेषज्ञ ?
कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि किसानों के विरोध करने की वजह समझने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को बेहद बारीकी से समझना होगा.
"देश के अलग-अलग हिस्सों में किसानों की समस्याएं, मुद्दे और उनकी राजनीति अलग है इसलिए उनके विरोध को देखने का तरीक़ा भी बदलना होगा."
"सरकार जो अनाज की ख़रीद करती है उसका सबसे अधिक हिस्सा यानी क़रीब 90 फीसदी तक पंजाब और हरियाणा से होता है. जबकि देश के आधे से अधिक किसानों को ये अंदाज़ा ही नहीं है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या है. ऐसे में उन्हें ये समझने में वक़्त लगेगा कि उनकी बात आख़िर क्यों हो रही है."
"ये समझने की ज़रूरत है कि जिस पर सीधा असर होगा वो सबसे पहले विरोध करेगा. एक अनुमान के अनुसार देश में केवल 6 फीसदी किसानों को एमएसपी मिलता है. लेकिन 94 फीसदी किसानों को तो पहले ही एमएसपी नहीं मिलता और वो बाज़ार पर निर्भर हैं. ऐसे में ये समझा जा सकता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान विरोध क्यों कर रहे हैं."
"भारतीय कृषि क्षेत्र लगातार संकट से जूझता रहा है लेकिन कुछ ही किसान हैं जो इस संकट से बचे हुए हैं. जिन 6 फीसदी किसानों को एमएसपी मिलता है वो संकट से बचे हुए हैं क्योंकि उनकी आय निश्चित हो जाती है."
"ये सच है कि सरकार और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य चलता रहेगा. लेकिन किसान इस बयान को भ्रामक मान रहे हैं. अभी भी, 25 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य है लेकिन सरकारी एजेंसियां इनमें से ज़्यादातर को नहीं खरीदती हैं. एक संभावना ये है कि भविष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाएगी लेकिन किसानों को इसका कोई ख़ास फायदा नहीं होगा."
"इससे भी आगे बढ़कर एक भय ये है कि अगर पीडीएस सिस्टम बंद किया जाता है तो सरकार को कुछ भी खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. एक सवाल ये भी है कि क्या भारतीय खाद्य निगम के पास सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदे जा रहे अनाज को रखने के लिए आधारभूत ढांचा भी या नहीं..."
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